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सम्राट अशोक विजय की लालसा में रात-दिन आगे बढ़ते गये। यहाँ तक कि कलिंग पर भी विजय हासिल कर ली और वापस अपनी राजधानी आ गये। इस विजय का उत्सव बड़े ठाठ-बाट से मनाना तय किया गया तथा राज्यारोहण के इस समारोह की तैयारियाँ धूमधड़ाके से होने लगीं।
उत्सव के दिन सुबह सम्राट अशोक अपनी माता के पास आशीष लेने पहुँचे। अशोक ने बड़े गर्व
के साथ माता को विजय की दास्तान सुनाई तथा बताया कि ढाई लाख सूरमाओं को मौत के घाट उतारकर
मुझे यह विजय हासिल हुई है।
यह सब सुनकर माता की आँखों से आँसू बहने लगे।
अशोक ने पूछा - "माताजी ! इस सुखद
बेला में वे आँसू आनन्द के हैं न ?"
"नहीं, नहीं रे अशोक !" माता ने कहा - "उन ढाई लाख लोगों में यदि तू होता तो मेरे पर क्या बीतती ? यह सोच रही हूॅ। उनके माता-पिता पर क्या बीती होगी, यह भी तूने सोचा ? काश, तू सोचता और यह सब न होता।"
सम्राट अशोक मानो नींद से जागे। उत्सव का काम बंद हो गया। चित्त से योद्धावृत्ति समाप्त हो गयी। करुणा, वैराग्य-वृत्ति जागृत हो गयी। उसी दिन से ही उन्होंने अपना जीवन धर्माराधना के लिए समर्पित कर दिया।
माताजी की करुणा का यह चमत्कार इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया।
शिक्षा- करुणा का असर गहरा होता है। परिणाम बदलते देर नहीं लगती।
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